जानिये "कर्तव्य कर्म" कौन से हैँ ? और "अकर्तव्य कर्म" कौन से हैँ ?
"अकर्तव्य कर्म" तथा आसुरी प्रवृति वाले लोगोँ का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने गिता 16 वे अध्याय के श्लोक 6 से लेकर 20 तक किया हैँ आईये जानते हैँ "अकर्तव्य कर्म" कौन से हैँ
हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ॥16-4॥
दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है ॥16-5॥
हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला । उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन ॥16-6॥
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य "कर्तव्य कार्य" मेँ प्रवृत्ति और "अकर्तव्य कार्य मेँ निवृत्ति" - इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है ॥16-7॥
वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल कामवासना को तृप्त करना ही इसका प्रमुख कारण है। इसके सिवा और क्या है? ॥16-8॥
इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके- जिन मनुष्योँका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रुरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं ॥16-9॥
वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामवासनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं ॥16-10॥
तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों को भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है' इस प्रकार मानने वाले होते हैं ॥16-11॥
वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य कामवासना-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं ॥16-12॥
वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और भविष्य मेँ और धन आ जाएगा ॥16-13॥
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ ॥16-14॥
मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं ॥16-15,16॥
वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं ॥16-17॥
वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामवासना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष, दूसरों के अन्त:करण में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं ॥16-18॥
उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ ॥16-19॥
हे अर्जुन! वे मूढ़ पुरुष मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को ही प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं ॥16-20॥