जानिये "धर्म" क्या हैँ ? और "अधर्म" क्या हैँ ? तथा"ज्ञान" और "अज्ञान" किसे कहते हैँ ?
शास्त्रोँ मेँ धर्म की बडी महिमा हैँ ।
[बृहध्दर्मपुराण मेँ कहेँ गये अनुसार...]
इस विश्वकी रक्षा के चार पैर माने गये हैँ ।
(1) सत्य
(2) दया
(3) शान्ति
(4) अहिँसा
(1) सत्य :- (1. झुठ न बोलना, 2. स्वीकार किये हुये का पालन करना, 3. प्रिय वचन बोलना, 4. गुरुकी सेवा करना, 5. नियमोँका दृढता से पालन करना, 6. आस्तिकता, 7. साधुसङ, 8. माता-पिता का प्रियकार्य, 9. बाह्यशौच, 10. आन्तरशौच, 11. शास्त्र विरुध्द कर्मो मेँ लज्जा, 12. अपरीग्रह.)
(2) दया :- (1. परोपकार, 2. दान, 3. सदा हँसते हुये बोलना, 4. विनय, 5. अपनेको छोटा समझना, 6. समत्वबुध्दि.)
(3) शान्ति :- (1. किसीमेँ दोष न देखना, 2. थोड़ेमेँ सन्तोष करना, 3. इन्द्रिय संयम, 4. भोगोँमेँ अनासक्ति, 5. मौन, 6. देवपुजा मेँ मन लगना, 7. निर्भयता, 8. गम्भीरता, 9. चित्तकी स्थिरता, 10. रुखेपनका अभाव, 11. सर्वत्र नि:स्पृहता, 12. निश्चयात्मिका बुध्दि, 13. न करने योग्य कर्मोका त्याग, 14. मान अपमान मेँ समानता, 15. दुसरो के गुणमेँ श्लाघा, 16. चोरी का अभाव, 17. ब्रह्मचर्य, 18. धैर्य, 19. क्षमा, 20. अतिथिसत्कार, 21. जप, 22. यज्ञ, 23. तिर्थ, 24. श्रेष्ठ पुरषोँकी सेवा, 25. मत्सर हीनता, 26. बन्ध मोक्षका ज्ञान, 27. संन्यास भावना, 28. अति दु:खमेँ भी सहिष्णुता, 29. कृपणताका अभाव, 30. मुर्खताका अभाव.)
(4) अहिँसा :- (1. आसनजय, 2. दुसरेको मन-वाणी-शरीरसे दु:ख न पहुँचाना, 3. श्रध्दा, 4. अतिथिसत्कार, 5. शान्तभावका प्रदर्शन, 6. सर्वत्र आत्मीयता, 7. दूसरेमेँ भी आत्मबुध्दि.)
तथा इसके विपरित जो हैँ उसे "अधर्म" कहते हैँ ।
"ज्ञान" और "अज्ञान" के विषय के मेँ भगवान श्रीकृष्ण गिता के 13 अध्याय मेँ कहते हैँ।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
(गिता 13- 7 से 11 )
श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।) अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ॥13-7॥
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना ॥13-8॥
पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना ॥13-9॥
मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना 'अव्यभिचारिणी' भक्ति है) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना ॥13-10॥
अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम 'अध्यात्म ज्ञान' है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान (इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से 'ज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से 'अज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है- ऐसा कहा है ॥13-11॥
जानिये "कर्तव्य कर्म" कौन से हैँ ? और "अकर्तव्य कर्म" कौन से हैँ ?......यहां किल्क करके..