मासांहारी खाना खाने वाले हिंदु कहलाने के लायक ही नहीँ



मासांहारी खाना खाने वाले हिंदु कहलाने के लायक ही नहीँ ऐसे लोग तो महान अपवित्र और घोर नरको मे पडते हैँ ।

भगवान श्रीकृष्णजी के अनुसार जो व्यक्ती मांसाहार का सेवन करता हैँ, वो तामसी और पापी व्यक्ती अधोगती अर्थात नरक को प्राप्त होता हैँ। भगवान गिता के 17 वे अध्याय के 10 वे श्लोक मेँ कहते हैँ,

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌। उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌॥

अर्थात हे अर्जुन ! जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र अर्थात मांसाहार भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ॥10॥

[ च अमेध्यम् - मांस, अण्डे आदि हिँसामय और शराब ताडी आदी निषिध्द मादक वस्तुएँ - जो स्वभावसे ही अपवित्र हैँ अथवा जिनमेँ किसी प्रकारके सङदोषसे, किसी अपवित्र वस्तु, स्थान, पात्र या व्यक्तिके संगोगसे या अन्याय और अधर्मसे उपार्जित असत् धनके द्वारा प्राप्त होने के कारण अपवित्रता आ गयी हो - उन सभी वस्तुओँको "अमेध्य" कहते हैँ। ऐसे पदार्थ देव - पुजनमेँ भी निषिध्द माने गये हैँ। ]

और तामस लोक कौनसी गती को प्राप्त होते हैँ, ये समझाते हुये भगवान गिता के 14 वे अध्याय के 18 वे श्लोक मेँ कहते हैँ।

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥

अर्थात हे अर्जुन !सत्त्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥18॥

भोजन के दो प्रकार पडते हैँ, शाकाहार और मांसाहार, शाकाहार मनुष्यो का आहार हैँ और मांसाहार राक्षस, पशु, हिंसक जानवर का आहार हैँ। पर मन्युष्य अगर मांसाहार का सेवन करेगा तो उसे भी राक्षस, कुत्ता ,कव्वा, गिधड, सिंह, बाघ, लोमडी, सियार, बिल्ली भी कहना पडेगा क्योकी, मांसाहार उनका ही तो आहार हैँ। पुरे भारत मेँ दो हीँ ऐसे राज्य हैँ जो भगवान श्रीकृष्णजीके वचनोँ का पालन करते हुये मांसाहार का सेवन नहीँ करते । गुजरात और राजस्थान, पर जो मांसाहार का सेवन करते जाते हैँ वो लोग गिता पढे बिना ही भगवान श्रीकृष्णजीका भक्त होने का ढिँढोरा पिटते रहते हैँ।

उन लोगो के बारे भगवान गिता के 16 वे अध्याय के 20 वे श्लोक मेँ कहते हैँ।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥

अर्थात हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं ॥20॥

और भगवान का कहना ना मानने वालो के बारे कहते हैँ

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥

अर्थात हे अर्जुन! उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा॥18-58॥

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥

अर्थात हे अर्जुन! परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥3-32॥

तथा श्रीमदभागवत् मेँ भी कहा गया हैँ,

पशुं विधिनालभ्य प्रेतभूतगणान् यजन ।


नरकानवशो जंतुर्गत्वा यात्युल्बणं तम: ॥

[श्रीमदभागवत् स्कन्ध 11, अध्याय 10, श्लोक 28]

अगर मनुष्य प्राणियोँको सताने लगे और विधी - विरद्ध पशुओँकी बलि देकर भुत और प्रेतोंकी उपासना मेँ लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया - बीता होकर अवश्य हीँ नरक मेँ जाता हैँ । उसे अन्त मेँ घोर अन्धकार स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञानमेँ ही भटकना पड़ता हैँ॥

तो मांसाहारी हिन...बुध्दुओ जवाब दो ।





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